रायपुर से धमतरी होते हुए 140 किलो मीटर पर नगरी-सिहावा है, यहाँ रामायण कालीन सप्त ॠषियों के प्रसिद्ध आश्रम हैं। सिहावा मेंं सप्त ऋषियों के आश्रम विभिन्न पहाडिय़ों मेंं बने हुये हैं। उनमेंं मुचकुंद आश्रम, अगस्त्य आश्रम, अंगिरा आश्रम, श्रृंगि ऋषि, कंकर ऋषि आश्रम, शरभंग ऋषि आश्रम एवं गौतम ऋषि आश्रम आदि ऋषियों का आश्रम है। श्री राम ने अपने वनवास के समय दण्डाकारण्य मेेंं स्थित आश्रम मेंं जाकर यहां बसे ऋषियों से भेंट कर सिहावा मेंं ठहर कर कुछ समय व्यतीत किया। सिहावा महानदी का उद्गम स्थल है। नगरी से आगे चल कर लगभग 10 किलोमीटर पर भीतररास नामक ग्राम है। वहीं पर श्रृंगि पर्वत से महानदी निकली है। कर्णेश्वर महादेव मंदिर, गणेश घाट, हिरंगी हाथी खोट का आश्रम, दंतेश्वरी की गुफा, अमृत कुंड और महामाई मंदिर उल्लेखनीय पवित्र स्थल हैं जो पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। यहीं से महानदी का उद्गम होता है। सिहावा पर्वत छत्तीसगढ़ राज्य के धमतरी जिले के नगरी नगरी विकास खंड के अंतर्गत आता है जहां से महानदी का उद्गम एक कमंडल से हुआ माना जाता है उस पर्वत ने ऋषि मुनि के कमंडल जब लुढ़क कर गिर गया तो वहां से जल की धारा प्रवाहित होने लगी जो महानदी के रूप में विख्यात है ऐसा माना जाता है महानदी पर्वत के शीर्ष से भाग से प्रवाहित होकर पहाड़ के आंतरिक भागों से होती हुई नीचे धरातल पर गणेश घाट से निकलती है इस पर्वत के एक और शीतला मंदिर स्थित है और दूसरी और गणेश जी का गणेश मंदिर स्थित है जो कि बहुत ही प्रसिद्ध है
सिहावा की सप्त ऋषियों की इस तपोभूमि के इस पवित्र आश्रम के जीर्णोद्धार व देखभाल की आवश्यकता है। ये पुरातन मान्यताओं के अनुसार सप्ता ऋषियों में सबसे वरिष्ठ अंगिरा ऋषि को माना जाता है। प्राचीन काल में यही उनकी तपोभूमि थी। इस पर्वत को श्रीखंड पर्वत के नाम से भी जाना जाता है। पौराणिक कथाओं में अंगिरा ऋषि की तप की महिमा का विवरण मिलता है। आश्रम के पुजारी मुकेश महाराज के अनुसार प्राचीनकाल में एक समय अंगिरा ऋषि अपने आश्रम में कठोर तपस्या में लीन थे। वे अग्नि से भी अधिक तेजस्वी बनना चाहते थे। अपनी कठिन तपस्या से महामुनि अंगिरा संपूर्ण संसार को प्रकाशित करने लगे। आज पर्वत शिखर पर स्थित एक छोटी सी गुफा मे अंगिरा ऋषि की मूर्ति विराजमान है। कहते हैं कि पुरातन मूर्ति जर्जर होकर खंडित हो चुकी थी। छत्तीसगढ़ में महानदी गंगा की तरह वंदनीय है। यही वजह है कि राजिम में जब सोंढूर और पैरी नदी इससे जुड़ती हैं तो इसका धार्मिक महत्व प्रयाग (गंगा,जमुना, सरस्वती के संगम स्थल) की तरह बढ़ जाता है। महानदी धमतरी के सिहावा पर्वत से निकलती है। राज्य के विभिन्न हिस्सों से निकलती है। ओडिशा होती हुई नदी सागर में समा जाता है। महानदी का उल्लेख रामायण काल से मिलता है। सिहावा पर्वत से निकल कर बंगाल की खाड़ी में पहुंचने के लिए महानदी कुल 855 किमी का सफर तय करती है। इसमें 285 किमी छत्तीसगढ़ व बाकी ओडिशा में। महानदी का प्रवाह दक्षिण से उत्तर की तरफ है। सिहावा से निकलकर राजिम में यह जब पैरी और सोढूल नदियों के जल को ग्रहण करती है तब तक विशाल रूप धारण कर चुकी होती है। महानदी के तट से शुरू हुई सभ्यता महानदी का इतिहास पुराण श्रेणी का है। ऐतिहासक ग्रंथों के अनुसार महानदी और उसकी सहायक नदियां प्राचीन शुक्लमत पर्वत से निकली हैं। इसका प्राचीन नाम मंदवाहिनी भी था। इतिहासकार ही नहीं, बल्कि भूगोलविद इसकी पुष्टि करते हैं। महानदी के संबंध में भीष्म पर्व में वर्णन है, जिसमें कहा गया है कि भारतीय प्रजा चित्रोत्पला का जल पीती थी अर्थात महाभारत काल में महानदी के तट पर आर्यो का निवास था।
रामायण काल में भी पूर्व इक्ष्वाकु वंश के नरेशों ने महानदी के तट पर अपना राज्य स्थापित किया था। मुचकुंद, दंडक, कल्माषपाद, भानुमंत आदि का शासन प्राचीन दक्षिण कोसल में था। महानदी की घाटी की अपनी विशिष्ट सभ्यता है। इस ऐतिहासिक नदी के तटों से शुरु हुई यह सभ्यता धीरे-धीरे नगरों तक पहुंची। तब आसपास के 12 ग्राम के भक्तों ने मिलकर एक समिति बनाई। समिति को श्री अंगिरा ऋषि बारह पाली समिति नाम दिया गया। समिति के सदस्यों ने पर्वत शिखर पर अंगिरा ऋषि की मूर्ति की स्थापना की। साथ ही भगवान शिव, गणेश, हनुमान की मूर्तियों को भी स्थापित किया। पर्वत के नीचे एक यज्ञा शाला देखा जा सकता है। कहते हैं वहां अंगिरा ऋषि का चिमटा व त्रिशूल आज भी पूजा के लिए रखा गया है। नवरात्र में भक्तों द्वारा यहां मनोकामना ज्योति प्रज्वलित की जाती है। अघन पूर्णिमा पर्व में श्रीराम नवमी का आयोजन होता है।

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