रायगढ़ जिला उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पूर्व तक उडिसा राज्य की सरहद से लगा हुआ है। इसका उत्तरी क्षेत्र जहां बिहड़, जंगल, पहाडियो से आच्छादित है। इसका मूल नाम स्थानीय लोग ‘गजमार पहाड़’ बतलाते हैं। वही इसका दक्षिण हिस्सा ठेठ मैदानी है। आदिमानव आज की तरह घर नहीं बना सकते थे। वे मौसम की मार और जंगली जानवरों से बचने के लिए प्राकृतिक रूप से बनी गुफाओं में रहते थे। उन्हीं गुफाओं को शैलाश्रय (चट्टानों के घर) कहते हैं। कबरा’ छत्तीसगढ़ी शब्द है, जिसका मतलब होता है- धब्बेदार आदिमानव उस समय जो भी देखते थे को उन गुफाओं में चित्रकारी कर अंकित किया करते थे, जिन्हें रॉक पेंटिंग (शैल चित्र) कहा जाता है। कबरा पहाड़ उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व में धनुषाकार में फैला हुआ है। छत्तीसगढ़ और ओड़िशा राज्य के सीमा से लगा होने के कारण इस क्षेत्र में छत्तीसगढ़ी और उड़िया दोनों भाषाओं का मिला-जुला प्रभाव है, और लोगों के संवाद का माध्यम उक्त दोनों भाषाओं के सहअस्तित्व वाली ‘लरिया’ बोली है। इसका उत्तर-पश्चिमी छोर रायगढ़ से ही आरंभ हो जाता है, जहाँ पहाड़ मंदिर (हनुमान मंदिर) नगर का प्रमुख दर्शनीय स्थल है। वहीं, दक्षिण-पूर्वी हिस्सा प्रसिद्ध हीराकुंड बाँध के मुहाने पर बसे घुनघुटापाली (ओडिशा अंतर्गत) में समाप्त होता है, जहाँ कदमघाट में घण्टेश्वरी देवी का मंदिर भी एक महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थल है। प्रागैतिहासिक काल के मानव सभ्यता के उषाकाल में छत्तीसगढ़ भी आदिमानवों के संचरण तथा निवास का स्थान रहा हैं।कबरा पहाड़ के शैलाश्रय पुरातात्विक स्थल है। मैंने गुफा में लगभग 2000 फ़ीट की खड़ी चढाई चढ़कर ऊपर तक जाकर देखा है। जो रायगढ़ से 8 कि.मी. पूर्व में ग्राम विश्वनाथपाली तथा भद्रपाली के निकट की पहाड़ी में स्थित है। गाँव के पश्चिम में आमा तालाब है और उसके पीछे चित्रित शैलाश्रय वाला कबरा पहाड़। उस समय यह पहाड़ घनी झाड़ियों , वृक्षों से घिरा हुआ दुर्गम था , तथा वहा तक पहुचने के लिए हमे काफी चलना पड़ा था. रस्ते में अनेको सर्प तथा अन्य जीव-जंतु भी नज़र आये थे।कबरा शैलाश्रय के चित्र भी गहरे लाल खड़िया, गेरू रंग में अंकित है। इसमें कछुआ, अश्व व हिरणों की आकृतियां है। इसी शैलाश्रय में जिले का अब तक का ज्ञात वन्य पशु जंगली भैसा का विशालतम शैलचित्र है। इसका मतलब यह है की ये जानवर उस समय वहां पर अधिक पाए जाते थे।कबरा शैलाश्रय के चित्रों में रेखांकन का सौंदर्य जिले के अन्य सभी शैलचित्रों से अच्छा बताया जाता है। लगभग 100 मीटर चौड़े और 5-10 मी गहरे इस शैलाश्रय की ऊँचाई उसकी चौड़ाई की लगभग आधी होगी, बाहर की ओर झुकी दीवार 70 डिग्री का कोण बनाती है, जिससे इसमें छत होने का आभास ही नहीं होता और बिना किसी कृत्रिम प्रकाश के शैलाश्रय के चित्रों को सूर्योदय से सूर्यास्त तक स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।  इसके साथ ही मध्य पाषाण युग के लंबे फलक ,अर्ध चंद्राकार लघु पाषाण के औजार चित्रित शैलाश्रय के निकट प्राप्त हुए थे। जिसका उपयोग आदि मानव कंदमूल खोदने में या शिकार करने में पत्थर को नुकीले करके उपयोग में लाते थे। मध्य पाषाण काल को पुरातत्वविद 9 हजार ई पू से 4 हजार ई पू के बीच का मानते हैं। इस शैलाश्रय में जंगली जीव, जलीय जीव, सरीसृप और कीट-पतंगों के साथ ही भिन्न-भिन्न आकार-प्रकार की रेखाकृतियों का अंकन है। यहाँ के चित्रों में जटिल रेखांकन जैसे सर्पिल ऊर्ध्वाधर और क्षैतिज रेखाएं, त्रिकोण आकृति, 36 आरियों वाले पहिये (जो अनुष्ठानिक भी हो सकता है), के अलावा जंगली पशु जैसे लकड़बग्घा, हिरण (गर्भिणी भी), साही, नीलगाय और बारहसिंगा; जलीय जीव जैसे कछुवा, मछली, केंचुवा; पक्षी जैसे मोर; सरीसृप जैसे गोह अथवा छिपकली; कीट जैसे तितली और मकड़ी एवं नाचते हुए मानवपंक्ति तथा ताड़ वृक्ष का अंकन उल्लेखनीय हैं। वर्तमान में यहाँ के पहाड़ी जंगल में भालू, जंगली शूकर, लोमड़ी, लकड़बग्घा, जंगली मुर्गा, गोह, सर्प आदि विचरते हैं। हिरण, बारहसिंघा और मोर के अनुकूल पर्यावास अब नहीं रहा। पास के आमा तालाब में मछली और कछुए पाये जाते हैं।  स्थानीय लोगों में कबरा पहाड़ शैलाश्रय और उसमें बने चित्रों को लेकर कई रोचक बातें प्रचलित हैं। गाँव के बुजुर्ग श्री चन्द्रिका प्रसाद भोई (75 वर्ष) बतलाते हैं कि कबरा पहाड़ के चित्रों को गाँव वाले देवताहा (देवस्थान) मानते हैं और प्रतिवर्ष फाल्गुन पूर्णिमा (होली) तिथि को वहाँ रात भर विविध अनुष्ठान जैसे पूजा, भागवत कथा एवं नामयज्ञ (हरे राम हरे राम, राम-राम हरे-हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण हरे-हरे।।) का निरन्तर गान होता है, जिसमें आस-पास के चार गाँव (लोइंग, जुर्ड़ा, विश्वनाथपाली, कोतरापाली) के लोग भी शामिल होते हैं। पूजा-अनुष्ठान में महिला-पुरूष समान रूप से भाग लेते हैं लेकिन महिलाओं को वहाँ चढ़ाये प्रसाद खाने की मनाही है। होली के अलावा नवरात्रि और महाशिवरात्रि के अवसर पर भी लोग वहाँ जाकर पूजा करते हैं। दूसरी जनश्रुति यह है कि यहाँ उनके पूर्वजों का धन (खजाना) गड़ा हुआ है, इतना कि उससे पूरे संसार को ढाई दिन तक खाना खिलाया जा सकता है। पूर्वजों के बनाये इन चित्रों और खजाने की रक्षा करती हैं, शैलाश्रय के दीवार की ऊँचाईयों पर अनेक छत्तों में मौजूद मधुमक्खियों की फौज। तीसरी, कहा जाता है कि गाँव वालों को कभी-कभी रात में शैलाश्रय स्थल पर अचानक प्रकाश और चमक दिखती है। चौथी बात, गाँव के लोगों की कोई कीमती वस्तु या पशुधन खो जाता है, तो वे कबरापाट देवता से मन्नत (विनती) करते हैं, जिससे खोई हुई वस्तु मिल जाती है, और फिर पूजा कर प्रसाद चढ़ा दिया जाता है।  इस काल में ही आदिम मावन ने पशुओं को पालतू बनाना सीखा था। नव पाषाण काल का प्रमुख अविष्कार पहिया को माना जाता है।नदियों की घाटिया मानव की सर्वोत्तम आश्रय स्थल रही है। और ये छेत्र महानदी घाटी में आता है। कबरा पहाड़ के शैलाश्रय को लेकर गाँव में कुछ नियम कायदे भी हैं। बताया गया कि उस स्थान पर नशा करके जाना, धूम्रपान करना, जूते-चप्पल पहनकर जाना, रजस्वला स्त्री का जाना और अशुद्धि (जन्म और मृत्यु के दौरान) में जाने की सख्त मनाही है और जो नहीं मानकर, अपवित्र होकर वहाँ चला जाता है, तो मधुमक्खियाँ उसे भगा देती हैं तथा उसके साथ अनिष्ट होता है।  कबरा पहाड़ से जुड़ी उपरोक्त मान्यताओं के साथ ही शैलाश्रय के बीचों-बीच हाल ही में बने एक चबूतरे पर रखे पत्थर को गाँव वालों द्वारा शिवलिंग के रूप में पूजा जाना, यह इंगित करता है कि भले ही यह शैलाश्रय अब अनुपयोगी (मानव के आश्रय स्थल के रूप में) हो चुका है और आज का आदमी उस आदिम चित्रकारी को भी भूल चुका है, लेकिन सदियों और पीढ़ियों से वह उस चित्रित शैलाश्रय से आधिदैविक और आधिबौद्धिक स्तर पर जुड़ा रहा है। यही कारण है कि विभिन्न पर्व-त्यौहारों, विवाह आदि के अवसर पर अपने वर्तमान निवास की भित्तियों को भी विविध अभिकल्पों, चित्रों से सजाया जाता है। 
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